शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

रविवार, 5 अक्तूबर 2014

उत्तर (लघु कथा)

    रिद्म मंदिर के देव कक्ष में बैठी हुई बुदबुदा रही थी, “दुनिया कहती है कि तुम पत्थर हो और पत्थर कभी भी कुछ सुनते या महसूस नहीं कर सकते, लेकिन मेरी बिन कही बातों को तो तुम कैसे सुन लेते हो ? मेरी उलझनों और परेशानियों को कुछ पलों में ही सुलझा देते हो । गलत राह पर जाने से पहले ही मुझे रोक लेते हो । चाहे तुम मुझे दिखाई न दो पर मैं तुम्हें अपने आस-पास महसूस करती हूँ । चाहे मैं तुमसे लाख शिकायत करती रहूँ कि तुम मेरी विनती नहीं सुनते या फिर मैंने तुमसे जो माँगा तुमने मुझे नहीं दिया पर ये भी सच है कि तुमने मुझे हमेशा मेरी उम्मीद से ज्यादा ही दिया है । लोग कहते हैं कि तुम भगवान नहीं पत्थर की केवल एक निर्जीव मूरत भर हो  पर मुझे ऐसा क्यों लगता है कि तुम पत्थर रूप में भी सजीव मानवों के निर्जीव हृदयों के संसार में सजीव रूप में मौजूद हो  जाने मैं ठीक हूँ या फिर तुम्हें पत्थर मानने वाले वो लोग ।"
इतना कहकर रिद्म भगवान की मूर्ति के आगे आशीर्वाद लेने के लिए नतमस्तक हुई तो मूर्ति के हाथ में सजा फूल रिद्म के हाथ में आकर गिरा । रिद्म फूल को अपने हाथों में पाकर प्रसन्न हो उठी । शायद उसे उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था । 

*चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

कविता : मेरा स्वप्न


स्वप्न सदा ही देखा करती 
जब भी जन्म धरा पे पाऊँ 
क्षत्रिय कुल में बन क्षत्राणी 
गौरव क्षात्र धर्म का बढ़ाऊँ

स्वतंत्र जियूँ स्वतंत्र मरुँ 
स्वाभिमान की खातिर 
साहस से मैं नित्य लडूँ
बन रानी दुर्गावती सी निडर 
अपनी आन पे प्राण गवाऊं 
स्वप्न सदा ही देखा करती...

प्रेम और भक्ति भरूँ हृदय में 
जग के मोह से तरी रहूँ 
रानी मीरा सी भक्त बनी मैं 
कृष्ण भक्ति से भरी रहूँ ।
वसुंधरा में ज्योति प्रेम की
हर्षित मन से नित्य जगाऊं 
स्वप्न सदा ही देखा करती...

रानी पद्मिनी सा पावन मन ले
सबका मैं सम्मान करूँ
पतिव्रता धर्म की खातिर
हर जन्म मैं संग्राम करूँ
अपने सतीत्व की रक्षा करती
जौहर कर स्वाहा हो जाऊँ
स्वप्न सदा ही देखा करती...

माँ सीता सी आदर्श नारी बन
राम के हर दुःख में साथ रहूँ
उत्साह कभी कम होने न दूँ 
उनके संग हर कष्ट सहूँ 
सभी कलयुगी रावणों का 
फिर से मैं संहार करवाऊँ
स्वप्न सदा ही देखा करती...

अपने हृदय में वात्सल्य बसा
यशोदा मैया का रूप धरूँ
गोद खिलाऊँ कान्हा को फिर 
उसकी लीलाओं में खोई रहूँ
बनकर माँ कान्हा की  
सदा के लिए अमर हो जाऊँ
स्वप्न सदा ही देखा करती...

कलम चले न व्यर्थ कभी भी
मैं लेखन को समझूँ धर्म
लिखूँ सार्थक कुछ ऐसा मैं 
जिसमें हो सर्वहित का मर्म 
अपनी कलम से समाज की
कुरीतियों को मैं चोट पहुँचाऊँ 
स्वप्न सदा ही देखा करती...


लेखिका : संगीता सिंह तोमर

रविवार, 29 जून 2014

कहानी: जश्न

 बके अपने- अपने शौक होते हैं मेरे भी कुछ शौक है. कॉलेज की पढ़ाई और घर के काम की व्यस्त दिनचर्या के बीच सुबह- सुबह डंबल उठाना, योगाभ्यास करना और अपने भाई की देखा-देखी कर शीशे के सामने बॉक्सिंग के पंच मारना. जबकि मेरी सहेलियाँ मुझसे बिल्कुल ही अलग हैं वो अपना अधिकतर समय मेकअप करके अपना चेहरा घिसने में व्यस्त रहना ज्यादा पसंद करती हैं. ऐसी ही मेरी एक सहेली है रीतू. उसका जब भी मन करता है मुँह उठाये मेरे पास वक़्त-बेवक़्त अपनी फरमाइश लेकर आ धमकती और कहती, “अगर तू मुझे अपनी सहेली मानती है तो तुझे यह करना पड़ेगा नहीं तो तू मेरी सहेली नहीं. हमारी दोस्ती समझ कि खत्म.मैं अपनी आदतानुसार किसी का दिल न दुखाने वाली लड़की उसकी बात अक्सर मान ही लेती.
     एक दिन शाम की चाय पीने के बाद अपने पढ़ाई में मस्त थी कि रीतू आ टपकी और अपनी फ़रमाइश की पोटली मेरे सामने खोल दी. उसने कहा कि इसी वक्त मुझे उसके साथ बाजार चलना पड़ेगा. उसके चचेरे भाई की शादी है और उसे कपड़ों की खरीददारी करनी है. खास बात यह थी कि रीतू सामान मेरी पसंद का खरीदना चाहती थी हालांकि मुझे पता था कि वह मेरी पसंद का कितना सामान लेगी. मैंने अपनी माँ से रीतू की फरमाइश पूरी करने की इजाजत माँगी, तो माँ ने हाँ कर दी लेकिन साथ ही साथ यह हिदायत भी दे डाली कि शाम के सात बजे से पहले  वापस आ जाना, क्योंकि शहर का माहौल खराब है.
     मैं और रीतू बाजार की ओर चल पड़े. रास्ते भर रीतू अपनी बातें सुनाती हुई गई. जिसमें अधिकतर उसकी खुद की ही तारीफ़ के कसीदे पढ़ना शामिल था. जैसे कि उसकी सुंदरता के बारे में, उसकी बहादुरी के किस्से आदि. असलियत में व्यक्तित्व तो उसका औसत से कुछ कम ही था जिसे वह सारा दिन मेकअप पोतकर आकर्षक बनाने का निष्फल प्रयास करती थी. अब उसकी बहादुरी के बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूँ क्योंकि मुझे उसकी बातों में कभी सच्चाई नहीं लगती क्योंकि मेरा मानना है कि जब इंसान सच बोलता है तो उसकी आँखों में एक अलग ही तरह की चमक होती है, लेकिन जब ही वह कोई अपना ऐसा किस्सा सुनाती तो उसकी आँखों में उस चमक का सदैव अभाव रहता. उसकी हमेशा आदत है कि वह अपने आप को हमेशा श्रेष्ठ बताने का प्रयास करती है और अपने आगे किसी की खूबियों को कोई महत्व नहीं देती. मुझे याद है एक दिन मेरे कमरे में लगे आइने के सामने अपने बालों को ठीक करते हुए उसने मुझसे एक प्रश्न पूछा कि तू इस बारे में क्या सोचती है? मैंने पूछा किस बारे में? वह बोली यही कि हम दोनों में ज्यादा सुंदर कौन है? फिर खुद ही जबाव भी दे दिया कि देख अगर तू इस गलतफहमी में है कि तू ज्यादा सुंदर है तो इसे भूल जा क्योंकि तू मेरे सामने कुछ भी नहीं है. मैं उसका जबाव सुनकर मुस्कुरा दी. हमारे पड़ोस में रहने वाली आठ वर्ष की नीरू हमारे सामने बैठी हुई थी वह तपाक से बोली कि रीतू दीदी कभी अपने चेहरे से यह किलो भर का मेकअप हटाए बिना अपना चेहरा दिखाइए तो पता चले भी कि आप कितनी सुंदर है. यह सुनते ही वह बुरी तरह चिढ़ गई थी. रीतू से मेरी पहचान तब से है जब मैं पाँच वर्ष की थी. वह मेरी सहपाठिन रही है. हम दोनों की शिक्षा साथ- साथ ही हुई. बचपन में वह पढाई- लिखाई में काफी अच्छी थी इस कारण हम दोनों में दोस्ती हुई लेकिन अब उसकी पढ़ाई में कुछ खास दिलचस्पी नहीं है. बस हर वर्ष उत्तीर्ण होने लायक तक अंक ले आती है और कहती है वह अपने जीवन से संतुष्ट है. कम से कम फेल तो नहीं हुई. उसकी मम्मी हमेशा मेरे सामने उसकी आदतों का रोना रोती रहती. उनकी हमेशा शिकायत रहती कि मेरे तीन बेटे है और सिर्फ रीतू एक लड़की. तीनों बेटे अपनी पढ़ाई में हमेशा बेहतर करते है लेकिन रीतू कभी भी अपनी पढ़ाई को गंभीरता से नहीं लेती. खास बात यह है कि वह अपने बेटों पर इतना ध्यान नहीं देती लेकिन अपनी बेटी को किसी सुविधा का अभाव नहीं होने देती और घर के काम को सीखने में भी उसे कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं है बस अपने में खोई रहती है. वह अक्सर कहती हैं कि मैं उसकी इतने वर्षों से सहेली हूँ वह मेरी बात जरूर मानेगी. मैं उसे समझाया करूँ. उसके भाइयों ने भी मुझसे कई बार कहा कि वह उनके कहे को अक्सर नजरंदाज करती है  मैं उसकी आदतों में बदलाव करने की कोशिश करूँ लेकिन मैंने इस बारें में उससे कई बार बात करने की कोशिश की लेकिन सब बेकार उससे बात करना ऐसा था मानो भैंस के आगे बीन बजाने जैसा. उसका जबाव मुझे यह मिलता कि मैं ज्यादा दार्शनिक बनने का नाटक न करूँ. कई बार मैंने उससे अपनी दोस्ती भी खत्म करनी चाही तो उसकी मम्मी मुझसे कहती बेटी एक तू ही तो है जिसकी बात वह मानती है अगर तूने उसका साथ छोड़ा तो जो वह थोड़ा हमारे नियंत्रण में है वह भी निकल जाएगी. लेकिन उसकी मम्मी को असलियत कौन समझाए कि वह कितना मेरी बात मानती है. वह तो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती. आंटी का दुःख देखकर मैं अपना इरादा बदल लेती.
    सनकीपन में भी उसका कोई सानी नहीं. एक बार रीतू की मम्मी का मुझे सुबह- सुबह फोन आया और मुझे अपने घर आने के लिए कहा. मैंने कारण जानना चाहा तो उन्होंने पहले मुझे अपने घर पहुँचने के लिए कहा.मैंने उनको उस दिन शाम को उनके घर पहुँचने का वादा किया. मैं शाम को उनके घर पहुँची तो आंटी मुझे रीतू के कमरे में ले गई. उसकी हालत ज्यादा खराब थी, मैंने उसकी ऐसी स्थिति का कारण जानना चाहा तो आंटी ने बताया कि एक महीने से यह व्रत किए हुए है अन्न ग्रहण नहीं कर रही. मैंने रीतू से पूछा ऐसा क्यों कर रही है तो वह बोली भगवान को खुश करना है. मैंने कहा भगवान भी अपने भक्तों को कष्ट में देखना पसंद नहीं करता वह बोली मेरी मर्जी मैं इसी तरह उनकी पूजा करती हूँ. उसकी मम्मी उसकी हालत देख कर रोने लगीं. उस दौरान वह अपनी जिद की वजह से मरते- मरते बची.
    इन सब घटनाओं में खोये हुये बाज़ार कब आ गया कि पता ही नहीं चला. वहाँ पहुँचते ही उसने खरीदारी शुरू कर दी. रीतू खरीदारी करने में इतनी मशगूल हो गई कि शाम के सात बजने को आए लेकिन उसकी खरीदारी पूरी न हुई. मैंने उससे कहा कि हमें इतने समय तक घर पहुँचना था अब काफी समय हो चुका है तो हमें यहाँ से निकलना चाहिए. उसने कहा बस कुछ देर में ही निकलते हैं थोड़ा सामान लेना बाकी है. उसका थोड़ा समान लेते- लेते ही रात के आठ बज गए. मेरे दिल की धड़कने बढ़ने लगीं. मैंने उसे कहा चलना है तो चले वरना मैं उसे छोड़कर अकेले घर जा रही हूँ जब उसने वापस चलने के लिए कोई उत्साह न दिखाया तो गुस्से में मैं ही वहाँ से चल दी. आख़िरकार वह भी मेरे पीछे- पीछे चल ही पड़ी. हमने काफी देर इंतज़ार किया लेकिन कोई सवारी का साधन न दिखाई दिया. आखिर एक खाली रिक्शा सामने से आता हुआ दिखा. मैंने उस रिक्शेवाले को रोका और उससे निश्चित स्थान और किराया तय कर हम दोनों उसके रिक्शे में बैठ कर वापस घर की ओर चल दिये. मैं गुस्से में रिक्शे पर चुपचाप बैठी हुई थी और रीतू इसलिए चुपचाप बैठी थी क्योंकि वह मुझसे कुछ बातकर मेरे गुस्से को और अधिक बढ़ाना नहीं चाहती थी. एकदम से रिक्शेवाले में न जाने कहाँ से ऊर्जा का संचार हुआ कि वह रिक्शा तेजी से चलाने लगा या देशी भाषा में कहें कि रिक्शे को उड़ाने लगा. फिर अचानक ही उसे जाने क्या सूझा कि उसने अपने रिक्शे को एक सुनसान गली की तरफ मोड़ दिया. मैंने उससे कहा कि वह गलत रास्ते पर रिक्शा क्यों ले जा रहा है? जब उसने कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने उसे डाँटते हुये रिक्शा उसी वक़्त रोकने को कहा. अब रिक्शेवाले ने विलेन का रूप धारण कर धमकाते हुये कहा, “लड़की अगर जिन्दा रहना चाहती है तो चुपचाप बैठी रह.किसी अनहोनी की आशंका से मेरा दिल काँप उठा और मैं चलते हुये रिक्शे से कूंद गई तथा अपने दोनों हाथों से रिक्शे को पीछे से पकड़कर रोक लिया. उस आदमी ने बहुत कोशिश की रिक्शा खीचनें की लेकिन मेरे हाथों में कसरत कर-करके इतनी ताकत आ चुकी थी कि वह रिक्शे को एक इंच भी आगे न बढ़ा सका. अब मैंने उस रिक्शेवाले को रिक्शे से उतारा और उसके दो-चार हाथ धर दिये. तभी हमारे पास एक फौजी अंकल दौड़ते हुये आए और सारे माजरे के बारे में पूछने लगे. जब मैंने उन्हें सारा घटनाक्रम बताया तो उन्होंने ने भी उस रिक्शेवाले पर अपने हाथों की खुजली मिटा ली और उसे पकड़ कर पुलिस थाने की ओर रवाना हो गए. इतना सब कुछ हो चुका था लेकिन मेरी तथाकथित बहादुर सहेली रिक्शे पर सुन्न हालत में बैठी रहकर अपनी तथाकथित बहादुरी का प्रदर्शन करने में मशगूल थी. मैंने उसे पकड़कर हिलाया तब जाकर वह होश में आई. रीतू के साथ चलते हुये मैं घर के दरवाजे पर पहुँची तो रीतू ने मुझे वहीं से विदा किया और अपने घर चली गई. मैं अपने घर का दरवाजा खटखटा रही थी इस उम्मीद के साथ कि जल्दी से माँ दरवाजा खोलें और मैं फ्रिज में रखा हुआ ढोकला निकालकर खाते हुये रीतू को अपनी मित्रता सूची में से हमेशा के लिए हटाने का जश्न मनाऊँ. 

गुरुवार, 22 मई 2014

स्वर्ग-नर्क (लघु कथा)

रामू को चार साल की उम्र में ही उसकी माँ उसे छोड़कर इस दुनिया से चली गई. हालाँकि वह अपने मोहल्ले का लाड़ला था, लेकिन अपने बाप की नियम से डांट और मार खाता था. बाप पूरे दिन दारू पिए घर पर पड़ा रहता था. चाहे गर्मी हो या कड़ाकेदार सर्दी हो या फिर तेज बारिश हो  रामू सुबह नियम से जल्दी उठता था और काम पर चला जाता था. वह पूरे दिन मेहनत से काम में लगा रहता था. आज भी वह भूखे पेट ही सुबह से ढाबे पर बर्तन धोने में लगा हुआ था तभी सामने से एक आदमी अपने कुत्ते को लिए आता हुआ दिखा. उसने ढाबे पर पहुँचकर ढाबे के मालिक को अपने कुत्ते के लिए फ्राई चिकन लाने का ऑर्डर दिया. मालिक ने रामू को इशारा किया. रामू ने अपने मालिक द्वारा दिये गए हुक्म का पालन किया. कुत्ता रामू द्वारा परोसे गए फ्राई चिकन को मजा लेते हुये खाने में मस्त हो गया. रामू दुखी मन से कुत्ते की ओर देखते हुए सोचने लगा, “कहते हैं कि इस दुनिया के बाद मनुष्य अपने कर्मों के आधार पर स्वर्ग या नरक को पाता है. यह कुत्ता जानवर होकर भी इतना अच्छा भोजन खाकर अपना जीवन मजे में बिता रहा है और मैं पूरा दिन भूखे पेट काम करता रहता हूँ, अपने मालिक की डांट-फटकार सहन करता हूँ और काम करने के बाद का जो पैसा मिलता है उसे मेरा बाप हजम कर लेता है और  मारता- पीटता है सो अलग. इस धरती पर इस कुत्ते का जीवन स्वर्ग से कम है क्या और मेरा जीवन नरक से कम तो नहीं.” इतना सोचते- सोचते रामू की आँखों में पानी भर आया.

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

पछतावा (लघु कथा)

होली के त्यौहार में बस कुछ ही दिन बाकी थे. संजू और उसके दोस्त को इन दिनों शरारत सूझ रही थी.  वे दोनों ढेर सारे गुब्बारे ले आए और उनमें पानी भर-भरके चार मंजिला इमारत की छत से हर आते-जाते राहगीर को शिकार बनाते और जब कोई छत पर उन्हें पकड़ने के लिए आने की सोचता तो दोनों वहाँ से रफू-चक्कर हो जाते. जब भी उनके द्वारा ऊँचाई से मारा गया गुब्बारा किसी के बदन को छूता तो कुछ पल के लिए वह तिलमिलाकर रह जाता.  दो दिनों में ही उनके सारे गुब्बारे खत्म हो गए, लेकिन उनके भीतर की शरारत करने की इच्छा अभी खत्म नहीं हुई थी. अब उन्होंने घरों में खाली पड़ीं दूध की थैलियों का अपनी शरारत में इस्तेमाल करने का निश्चय किया. दूध की थैली को पानी से भरकर वे दोनों छत की ओट में छिपकर शिकार का इंतज़ार करने लगे. तभी एक महिला धीमी चाल में नीचे से गुज़री. जल्दबाजी में संजू ने निशाना साधकर पानी से भरी हुई दूध की थैली उसकी पीठ पर दे मारी. वह महिला चीख के साथ ज़मीन पर औंधे मुँह गिरी. आसपास लोगों की भीड़ लग गई. संजू और उसका दोस्त डर के मारे वहाँ से लापता हो गए. देर शाम को जब संजू अपने घर पहुँचा तो उसके घर के बाहर आस-पड़ोस के लोग इकठ्ठा हो रखे थे. वह घर के भीतर घुसा तो माँ के संग पूरे परिवार को रोते पाया. बाद में पता चला कि जिस महिला को उन्होंने पानी से भरी थैली मारी थी वह उसकी बड़ी दीदी थी. जब पानी की थैली उसकी दीदी की पीठ पर लगी तो वो पेट के बल गिर पड़ीं और उनकी हालत इतनी नाजुक हो गई कि हॉस्पिटल के  इमरजेंसी वार्ड में भर्ती करवाना पड़ा. जहाँ दीदी के पेट में गंभीर चोट आने के कारण मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ. यह खबर पता चलते ही संजू की आँखों से आँसुओं का सागर बहने लगा. उसे अपनी द्वारा की गई शरारत के नाम पर की हुई गंभीर भूल पर पछतावा हो रहा था.


चित्र गूगल से साभार 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

हाउस वाइफ बनाम सर्वेन्ट (लघु कथा)

कालेज के ग्राउंड में सभी दोस्त ग्रुप बनाकर आपस में बातचीत करने में मस्त थे.
दीपा, जो अपने आपको कुछ ज्यादा ही स्मार्ट समझती थी, ने यूँ ही अतुल से पूछ डाला, “कालेज की पढ़ाई के बाद भविष्य में तू क्या करेगा?
अतुल बोला, "मैं अपने देश का राष्ट्रपति बनूँगा."
दीपा व्यंग्यात्मक हँसी हँसते हुए उससे बोली, “तुझे इंग्लिश बोलनी तो आती नहीं और देख रहा है राष्ट्रपति बनने के सपने. तू राष्ट्रपति तो बनने से रहा. हाँ लेकिन तुझे उसके घर झाड़ू-पोछा का काम जरूर मिल जाएगा.”
अतुल यह सुन हताश हो गया. दीपा इसी तरह सभी से प्रश्न करती रही और सबका मज़ाक उड़ाती रही. आखिर में सुरभि की बारी आई.
दीपा ने इतराते हुए उससे भी पूछा, “अब तू भी बता दे कि तू क्या बनने के ख्वाब देख रही है?”
सुरभि ने जबाव दिया, “मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करूँगी.”
दीपा ने पूछा, ”इस ख्वाब को तो हम सब ही देख रहे हैं, लेकिन फिर उसके बाद क्या करेगी?
सुरभि बोली, “उसके बाद मैं अपने माँ-बाप द्वारा खोजे गए लड़के से विवाह करूँगी.”
दीपा ने बेचैन होकर फिर पूछा, “अरे विवाह तो हम सबको ही करना है. इस लल्लू छाप मोनू के भी दिमाग में यही बात है, कि पढ़ने-लिखने के बाद ये भी सो काल्ड विवाह करेगा. बट आफ्टर विवाह व्हाट विल यू डू देवी जी?”
सुरभि धीमे से मुस्कुराई और बोली, “फिर मैं एक आदर्श गृहणी बनकर अपना जीवन बिताऊंगी. आइडल हाउस वाइफ इन योअर लेंग्वेज.”  
दीपा खीसें निपोरती हुई बोली“यू मीन टू से सर्वेंट”.
सुरभि ने दीपा से पूछा“वैसे तुम्हारी मम्मी क्या नौकरी करती हैं?
दीपा ने जबाव दिया, "सी इज अ हॉउस वाइफ".
सुरभि ने मुस्कुराते हुए कहा, "इट मीन्स सी इज आलसो अ सर्वेंट".
दीपा की अचानक बोलती बंद हो गई.
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