शोभना सम्मान - २०१३ समारोह

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

कविता - प्रभु की खोज


हे प्रभु
दर-दर भटककर 
तुझको कण- कण में 
खोजने का करूँ जतन 
पर कहाँ मैं तुझको पाऊँ
ये मन समझ न पाए
आस बड़ी है
तुझको पाने की
और एक पल को 
हो निराश मैं सोचूँ 
क्या कभी मनोरथ ये मेरा 
हो पाएगा पूरा
जब मैं तुझको देखूँ साक्षात् 
मस्तक पे लगा पाऊँगी 
तेरे चरणों की रज
फिर सुनूँ तुम्हारी अमृतवाणी
और कानों को 
धन्य करूँ अपने मैं
अचानक मस्तिष्क में गूँजे ध्वनि
जैसे प्रभु कह रहे हों मुझसे
क्यों भटके मन तेरा 
मुझको खोजने की खातिर
मैं तो हूँ तेरे अंतर्मन में
मींच आँखों को अपनी 
और फिर कर संवाद मुझसे
मैं हूँ प्रकृति के कण- कण में
मैं हूँ बालक की निश्चल हँसी
कुसुम, पखेरू व चैतन्य 
सब में मैं वास करूँ
मैं मिल जाऊँगा बहते नीर में
उसमें सुन तू संगीत मेरा
मैं हूँ बुजुर्गों के चरणों में
उनको स्पर्श कर पाले मुझको
मैं तो हूँ तेरे अंग-अंग में
रहता हूँ सदा समाया
कुछ पल को आँखें मींच
और मुझको कर अनुभव।

लेखिका - संगीता सिंह तोमर
चित्र गूगल से साभार

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

कविता : रे सिपाही मत चिल्ला


(मेरी यह कविता उन सभी पुलिसवाले भाइयों को समर्पित है जो आए दिन अफसरों के जुल्म का शिकार होते रहते हैं।)
थप्पड़ खा, घूँसे खा
रे सिपाही मत चिल्ला
जूते खा, डंडे खा
रे सिपाही मत चिल्ला
गाली खाके रोता जा
रे सिपाही मत चिल्ला...

जो चिल्लाया तो 
तेरी खैर नहीं
रहेगा कहीं भी 
तेरा ठौर नहीं
चुपचाप जुल्म को 
तू सहता जा
रे सिपाही मत चिल्ला...

तू अफसर का कुत्ता बन
कुत्ता बनके हिला तू दुम 
खुद का मान-सम्मान भुलाके
चमचागिरी को तू चुन
फिर देख आएगा 
तुझे बड़ा मजा
रे सिपाही मत चिल्ला...

गर न माना तू बात मेरी
दिख जाएगी तुझे औकात
सस्पेंशन, डी और टर्मिनेट की
मिल जाएगी तुझे सौगात 
जाएगा यहाँ से 
फिर तू रोता
रे सिपाही मत चिल्ला...

मानवाधिकार की बात न कर
अफसरशाही से कुछ तो डर
पल भर में कतरे जाएँगे
जो निकाले तूने पर
चल अब ऐसा कर 
तू भाड़ में जा
रे सिपाही मत चिल्ला...

लेखिका : संगीता सिंह तोमर
चित्र गूगल से साभार 

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

व्यंग्य : आधुनिक बहू


    लियुग की एक विशेष कलाकृति है आधुनिक बहू। विवाह से पहले अपने मायकेवालों का जीना हराम करने के बाद ये आधुनिकता का झंडा लिए अपने ससुराल में प्रवेश करती है। ससुराल आकर ससुरालवालों का सांस लेना दूभर करना इसका प्रथम उद्देश्य रहता है। ससुराल में प्रवेश करने के बाद बहूरानी पत्नी परमेश्वरी के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं और अपने झूठे आँसुओं का सागर बहाकर अपने पति परमेश्वर को ससुरालवालों के खिलाफ भड़काने जैसे पुनीत कार्य में सक्रिय हो जाती हैं और इसके लिए विधिवत शिक्षा देना आरंभ कर देती हैं। पति परमेश्वर भी अपनी पत्नी परमेश्वरी की बातों को कबूतर की भांति आँख बंदकर पूर्णत: स्वीकार करता रहता है। कलियुगी संस्कार तो इनमें कूट-कूटकर भरे होते हैं। जब घर के सब लोग दैनिक कर्मों से निवृत हो लेते हाँ तब आधुनिक बहू की भोर होती है। आधुनिक बहु का कर्म क्षेत्र घर की रसोई नहीं फेसबुक, व्हाट्सएप व अन्य सोशल मीडिया के मंच होते हैं जिनपर ही दिन-रात इसके ख्याली पुलाव पकते रहते हैं। यदि भूल से भी इसे कुछ काम करने को कह दिया जाए तो ये दुनिया की सबसे बड़ी पुजारिन बनकर पूजा-पाठ करने को आसन जमाकर बैठ जाती है। अगर ससुरालवाले ज्यादा रोका-टोकी करने की भूल करते हैं तो बात-बात पर आत्महत्या करने की ये धमकी देती हैं तथा दहेज प्रताड़ना की शिकायत कर सबको जेल में चक्की पिसवाने का खौफ दिखाती हैं। बेचारे ससुरालवाले अपने परिवार की बदनामी के डर से शांत होकर अत्याचार सहते हुए अपमान की चक्की पीसते रहते हैं। घर में बाहर से कोई मेहमान आए तो ये भोली-भाली नारी के रूप में अवतरित हो जाती है और मेहमान की खूब आवाभगत करती है ताकि समाज में सब इसके भलेपन के गुण गाए जाएँ और इसका सामाजिक पक्ष मजबूत बना रहे।जबकि ससुरालजनों के मुँह में क्लेश करके रोटी का निवाला तक जाना मुश्किल कर देती है, ताकिवे अवसाद का शिकार हो इस संसार को राम-राम कर जाएँ। धीमे-धीमे आधुनिक बहू अथवा पत्नी परमेश्वरी का मौन समर्थन इसके पति परमेश्वर भी करने लगते हैं और पति परमेश्वर को अपने माँ-बाप, भाई-बहन जैसे रिश्ते महत्वहीन लगने लगते हैं। उसे उसका परिवार उसके उज्ज्वल भविष्य में रोड़ा दिखने लगते हैं। एक दिन ऐसा भी आता है जब आधुनिक बहू द्वारा ससुरालवालों को ससुराल से विस्थापित कर अपने मायकेवालों को स्थापित कर दिया जाता है। यह देख समाज धन्य हो जाता है और आधुनिक बहु अपनी विजय पर मंद-मंद मुस्कुराती है।


लेखिका : संगीता सिंह तोमर 

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

कविता : हर्षनाद


एक दिन अंतर्मन में
उठी एक इच्छा कि 
पूछूँ प्रभु से 
एक छोटा सा प्रश्न कि
क्यों मेरी भक्ति के बदले
देते हो प्रभु 
उलझनें, परेशानियां और
संघर्ष से भरा ये जीवन
अचानक ही अंतर्मन में 
गूँजी किसी की मधुर ध्वनि
लगा कि जैसे 
प्रभु कह रहे हों कि
जो संतान होती है 
मुझे अति प्रिय
लेता हूँ उसकी परीक्षा
उसे संघर्ष भरे जीवन से 
तपाकर बना डालता हूँ 
बिलकुल खरा सोना
मेरी संतान होने का 
मिलना चाहिए 
इतना तो सौभाग्य उसे
यह सुनते ही
मेरे अंतर्मन ने 
किया हर्षनाद 
और प्रभु द्वारा प्रदत्त
उस सौभाग्य को
सहर्ष स्वीकार किया।
लेखिका : संगीता सिंह तोमर

शनिवार, 28 नवंबर 2015

कविता: एक सच

जो सीधे-सच्चे
होते हैं इंसान
उनको नहीं जरुरत

होती चिकनी-चुपड़ी
बातें करने की
न ही होना पड़ता
विवश उन्हें 
किसी के चरण चूमने को 
उनका तो परिश्रमी 
तन-मन
निश्छल व्यवहार
और स्पष्टवादिता ही
उनके आगे बढ़ने का
मार्ग प्रशस्त करते हैं।
लेखिका- संगीता सिंह तोमर

गुरुवार, 19 मार्च 2015

नारी बनाम स्वतंत्रता


    स रोज अचानक एक पत्रिका में छपे एक महिला के विचारों की ओर ध्यान चला गया। उस महिला द्वारा पुरुष वर्ग की आलोचना करते हुए बहुत ही कटु विचार प्रस्तुत किये हुए थे। उसमें कुछ शब्द तो ऐसे थे कि उन्हें यहाँ उल्लिखित करना भी अनुचित लगता है। अक्सर कुछ महिलाएँ नारीवाद के नाम पर पुरुष समाज की ऐसी-तैसी करने को तत्पर रहती हैं। उनके मतानुसार पुरुषवर्ग स्त्री जाति को शोषण की चक्की में पीसना चाहता है और उसे पिछड़ा बने रहना ही देखना चाहता है। इन तथाकथित आधुनिक स्त्रियों द्वारा पुरुष को एक अत्याचारी जीव के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता है। जबकि यदि हम इतिहास के पन्नों को खोलकर देंखें तो पता चलता है कि प्राचीन समय, जबकि उस समय पैतृक समाज था, से ही भारत में अनेक विदूषी नारियों का आस्तित्व दिखाई देता है। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला एवं विश्वास जैसी विदुषी नारियों का ज़िक्र मिलता है। इन विदूषियों को 'ऋषि' की उपाधि से विभूषित किया गया था। प्राचीन समय में भी स्त्रियाँ महत्वाकांक्षी थीं और हर कला में पारंगत होना चाहती थीं। उन्होंने अपना मानसिक व बौद्धिक स्तर विकसित करने के लिए हर क्षेत्र में ज्ञान की खोज करने का यत्न किया, न कि आज की कुछ तथाकथित आधुनिक कहलाने वाली स्त्रियों की तरह अपने बदन की नुमाइश पर बल दिया। यदि एक पुरुष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है, तो हमें यह भी सत्य स्वीकार करना चाहिए कि एक स्त्री की सफलता के पीछे भी एक पुरुष का हाथ हो सकता है। अब अगर स्त्री इस सच्चाई को अपने अहम के कारण स्वीकार करना ही न चाहे तो ये अलग बात है। क्या स्त्री का पुरुष के बिना कोई अस्तित्व संभव है? एक बार के लिए यदि स्त्री पिता, भाई, पति और पुत्र के बिना अपनी कल्पना करे तो उसमें एक अधूरापन ही रहेगा। समाज में परिवर्तन तभी आ सकता है जब पुरुष और स्त्री दोनों आपस में एक-दूसरे का सम्मान करना सीखें न कि हमेशा एक-दूसरे पर ऊंगली ही उठाते रहें। अगर कोई स्त्री पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर स्वतंत्रता का नाम देकर भारतीय मूल्यों को तिलांजलि देते हुए समाज से सम्मान की उम्मीद करे तो करती रहे। हमारी भारतीय संस्कृति ऐसी है जहाँ पुरुष में भगवान श्री राम और नारी में देवी सीता के गुणों को महत्व दिया जाता है। अब यह स्त्री पर निर्भर है कि वह अपने को सम्मानीय स्तर पर लाना चाहती है या फिर मात्र तमाशा भर बनना चाहती है।
    एक पुरानी घटना याद आ रही है। एक दिन अपनी माँ के साथ उनकी सहेली के यहाँ जाना हुआ। अचानक बातों ही बातों में  समाज में  महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों के विषय में बहस होने लगी। माँ बोलीं, “बहन जी देखिये आजकल की लड़कियों का पहनावा भी कितना खराब हो रहा है। लड़कियों को शालीन वस्त्र पहन कर रहना चाहिए।” इस पर माँ की सहेली बोलीं, “बहन जी मेरे अनुसार तो लड़की की आँखों में शर्म होनी चाहिए। पहनावे से कुछ फर्क नहीं पड़ता। बिगड़नेवाली तो सलवार-कमीज पहनने वाली भी बिगड़ जाती है।” उनकी एक बेटी घर में हाफ पैंट में घूम रही थी। उसका हाफ पैंट कुछ ज्यादा ही छोटा था। दूसरी बेटी ने  पूरा पैंट तो पहन रखा था, लेकिन ऊपरी बदन पर ऊंची कुर्ती पहनी हुई थी। कपड़े तो पूरे बदन पर थे लेकिन कपड़े पारदर्शी थे जो शरीर को ढकने की बजाय उसे दिखा अधिक रहे थे। उस दौरान उनके घर पर किसी काम से दो जानकार आए और वे दोनों माँ की सहेली से बातचीत करने की बजाय उनकी बेटियों के कपड़ों पर ही ध्यान केन्द्रित किये रहे।
   “लड़कियों की आँखों में शर्म होनी चाहिए, चाहे पूरा बेशक बदन नंगा बना रहे” भावना का उस देश में विकास हो रहा है जहाँ पर अनेक नारियाँ अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए अग्नि में जलकर स्वाहा हो गईं, लेकिन अपने मान पर आंच नहीं आने दी। आज की तथाकथित आधुनिक नारी अश्लीलता का दामन थाम आगे बढ़ना चाहती है। शालीन वस्त्र पहनने के बारे में सुनना भी इसे रूढ़िवादिता लगती है और इसे वह अपनी स्वतंत्रता का हनन मानती है। विवाह को वह कैद मानकर ‘लिव इन रिलेशनशिप’ का दामन थामने की पक्षधर है। लड़कों के साथ स्वछंद रूप से कमर में हाथ डलवाकर घूमना और सिगरेट के कश खींचना या फिर शराब के पैग लगाना ही इसे आधुनिक बनाता है, लेकिन विवाह  के बाद सास-ससुर, पति और बच्चों के लिए रसोई में खाना बनाना इसको शोषित वर्ग के दर्जे में लाकर खड़ा कर देता है। पाश्चात्य संस्कृति की अच्छी बातों को सीखने के बजाय उसकी गंदगी को सहज ही प्रसन्नता से स्वीकार कर शायद ये तथाकथित आधुनिक नारियां आधुनिकता की कीर्ति पताका भारतीय पटल पर फहराना चाहती हैं।
    कई लोग महिलाओं की आजादी के पक्ष में बात करते हैं। वो चाहते हैं कि महिलाओं को मन-मुताबिक वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता हो, उनके आने- जाने पर परिवार की ओर से समय की कोई पाबंदी न हो। अब ये और बात है कि परिवार द्वारा लगाईं गई यह कोई पाबंदी नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए परिवार की ओर से चिंता होती है। वैसे भी इस प्रकार की आजादी मिलने से क्या महिलाओं की दशा में कोई उन्नति होगी? शायद उनकी स्थिति और दयनीय हो जायेगी। अभी भी देखा जा सकता है कि कुछ महिलाओं को घर की तरफ से पूरी छूट मिली है उनमें से अधिकतर पबों और होटलों में अपनी आजादी का लुत्फ़ उठाती हुई मिल जाती हैं। पाश्चात्य जगत में भी महिला को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। तब भी वहाँ समाज की व्यवस्था चिंताजनक है। पारिवारिक संस्था वहाँ सबसे ज्यादा कमज़ोर है, जिसका परिणाम परिवार टूटना और  सम्बंध-विच्छेद के रूप में दिखाई देता है। यदि समाज में वास्तव में महिलाओं की स्थिति को बेहतर और सम्मानीय बनाना है तो इन बेमतलब के तथ्यों को दरकिनार कर हमें मानसिक रूप से उन्हें आधुनिक बनाना पड़ेगा न कि आधुनिक वस्त्रों से। कन्याओं को प्रारंभिक अवस्था से ही शारीरिक मजबूती पर बल दिया जाना चाहिए। जिस प्रकार उनकी शिक्षा को महत्व दिया जाये उसी प्रकार उन्हें  आत्मरक्षा के लिए बॉक्सिंग, ताइक्वान्डो, जूडो, कराटे इत्यादि आत्मरक्षा के गुर सिखाना भी आवश्यक है इससे उनमें आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का स्तर और अधिक बढ़ेगा। तब नारी वास्तव में अपने ऊपर होनेवाले वास्तविक अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम होगी और यह नारी सशक्तिकरण की एक सार्थक पहल होगी।

रविवार, 5 अक्तूबर 2014

उत्तर (लघु कथा)

    रिद्म मंदिर के देव कक्ष में बैठी हुई बुदबुदा रही थी, “दुनिया कहती है कि तुम पत्थर हो और पत्थर कभी भी कुछ सुनते या महसूस नहीं कर सकते, लेकिन मेरी बिन कही बातों को तो तुम कैसे सुन लेते हो ? मेरी उलझनों और परेशानियों को कुछ पलों में ही सुलझा देते हो । गलत राह पर जाने से पहले ही मुझे रोक लेते हो । चाहे तुम मुझे दिखाई न दो पर मैं तुम्हें अपने आस-पास महसूस करती हूँ । चाहे मैं तुमसे लाख शिकायत करती रहूँ कि तुम मेरी विनती नहीं सुनते या फिर मैंने तुमसे जो माँगा तुमने मुझे नहीं दिया पर ये भी सच है कि तुमने मुझे हमेशा मेरी उम्मीद से ज्यादा ही दिया है । लोग कहते हैं कि तुम भगवान नहीं पत्थर की केवल एक निर्जीव मूरत भर हो  पर मुझे ऐसा क्यों लगता है कि तुम पत्थर रूप में भी सजीव मानवों के निर्जीव हृदयों के संसार में सजीव रूप में मौजूद हो  जाने मैं ठीक हूँ या फिर तुम्हें पत्थर मानने वाले वो लोग ।"
इतना कहकर रिद्म भगवान की मूर्ति के आगे आशीर्वाद लेने के लिए नतमस्तक हुई तो मूर्ति के हाथ में सजा फूल रिद्म के हाथ में आकर गिरा । रिद्म फूल को अपने हाथों में पाकर प्रसन्न हो उठी । शायद उसे उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था । 

*चित्र गूगल से साभार 
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